बन्द झरोखे में
नारी की व्यथा।
बंद झरोखें के पार।
आँसु कहाँ कुछ कह पाते हैं।
बस चुपचाप गोलों पर लुढक आते है।
समझा देते मन की व्यथा को।
तड़प कर जो रह जाते हैं।
अहमियत उसकी कोई समझ ना पाया।
अपने स्वार्थ में लोग जीते है।
हमारे समाज की दुर्दशा है ऐसी।
ऊपरी आवरण से चिंतित होते हैं।
शोर मचाते ऐसे जैसे आज ही न्याय हो जाएगा।
मोमबत्तियाँ लगा सड़कों पर आक्रोश दिखाते हैं।
प्रपंच दिखा सौहार्द का ।
भ्रमित उस नारी को कर जाते है।
ताक़ती रहती अपनी बंद खिड़की के झरोखे से।
कब होगा या ना होगा या ताउम्र नजरें झुकाएगी।
ह्दय के कोने से जब जज़्बात उमड़ते हैं।
व्यग्र मन आंशकित होकर भंवर जाल में और फँसा जाते है।
नीलम गुप्ता (नजरिया )
दिल्ली
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20-May-2021 08:51 AM
Behtreen rchna
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Shilpa modi
19-May-2021 10:24 PM
बेहतरीन
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SAGAR BABAR
19-May-2021 07:42 PM
Good
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NEELAM GUPTA
19-May-2021 10:16 PM
आपका बहुत बहुत आभार
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